्ट अल्लाह का दीन नौजवानों से क्या चाहता है?
(तहरीकी नौजवानों से खिताब)
मौलाना सैयद जलालुद्दीन उमरी अनुवाद... सैयद ख़ालिद निज़ामी
ब्लनन्लकर १ ०
रि विततमिल््लाहि्मानिर्ीग अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान,-निहायत_ रहमवाला है।
अल्लाह का दीन नौजवानों से कया चाहता है?
नौजवानों और छात्रों की अहमियत हर ज़माने में रही है। आज भी उनकी बड़ी अहमियत है, बल्कि पहले के मुक़ाबले में ज़्यादा अहमियत है। यही वे लोग हैं जिनके हाथ में जल्द ही देश और क़ौम की बागडोर होगी। वे अगर सही फ़िक्र (सोच) और सही सीरत (चरित्र) वाले होंगे तो पूरे देश को .सही रास्ते पर ले चलेंगे, और अगर वे बेफ़िक्री और अमली भटकाव का शिकार हो जाएँ तो पूरी क्रौोम और देश की दिशा भी गलत हो जाएगी। नौजवान क़ौम के मेमार (निर्माता) हैं। उनसे इसका भाग्य जुड़ा हुआ है। उनमें कुछ ऐसे गुण और ख़ूबियाँ होती हैं जो बड़ी उम्र वालों में कम ही पाई जाती हैं। एक तो यह कि किसी फ़िक्र और ख्याल को क़बूल करने की सलाहियत (क्षमता) उनमें अधिक होती है। बड़ी उम्र कें लोगों को दूर और नज़दीक की मस्लहतें और कभी-कभी असबियतें (दुराग्रह) किसी फ़िक्र या उसूल को क़बूल करने से रोक देती .हैं। नौजवानों के मज़बूत और पक्के इरादे इन ज़ंजीरों को काट सकते हैं। उनके रास्ते में आमतौर पर वे चीजें रुकावट नहीं बनतीं जो बड़ों के रास्ते में रुकावट होती हैं। दूसरे यह कि उनमें ताज़ा खून, नया
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जोश और वलवला होता है, इसलिए कुछ कर दिखाने का हौसला और -उसकी-ताक़त व् सलाहियत भी उनमें ज़्यादा होती है। उनका तीसरा गुण यह होता है कि जिस चीज़ को वे सही समझें, उसपर अमल कर सक़ते-हैं।-किसी फ़िक्र यां उसूल-को-सही समझना और उसकी मदद न करना और ख़ामोश बैठे रहना नौजवानों के मिजाज के ख़िलाफ़ है। वे 35 दे तकलीफ़ें उठा सकते हैं और क्ुरबानियाँ भी दे सकते हैं। जी
इन्हीं वजहों से नौजवान हर तहरीक (आन्दोलन) का सरमाया होते हैं। उनको हर तहरीक अपने साथ लेने और उनसे ताक़त हासिल करने की कोशिश करती है। जब किसी तहरीक में जवानों का आना रुक जाता है तो वह ख़त्म हो जाती है। दुनिया में जो बड़े-बड़े इंक़रिलाब आए उनमें नौजवानों का हाथ रहा है। उनकी क्ुरबानियों ही ने उन्हें कामयाबी तक पहुंचाया है। नबियों का इतिहास बताता है कि नौजवानों ने ही सबसे पहले उनका साथ दिया। हज़रत मूसा (अलैहि०) ने जब रब की बन्दगी की तरफ़ बुलाया तो वे नौजवान ही थे जिन्होंने आगे बढ़कर उसे क़बूल किया और फ़िरऔन के जुल्म व सितम को सहने के लिए तैयार हो गए। “मूसा को फ़िरऔन की क़ौम में से कुछ नौजवानों के सिवा किसी ने न माना, फ़िरऔन के डर से और अपनी क़ौम के सरदारों के डर से। उन्हें डर था कि फ़िरऔन उनको अज़ाब (यातना) में डाल देगा। सच यह है कि फ़िरऔन ज़मीन में गलबा रखता था और वह उन लोगों में से था जो किसी हद (सीमा) पर रुकते नहीं हैं। (कुरआन, 0:83)
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असहाबे-कहफ़ नौजवान ही थे जिन्होंने यह साबित कर दिया कि अल्लाह के दीन के लिए इस दुनिया की साज- सज्जा और ऐश-आराम को छोड़ा जा सकता है और उसकी हिफ़ाज़त के लिए गुफाओं में पनाह ली जा सकती है।
“वे कुछ नौजवान ही थे जो अपने रब पर ईमान ले आए थे और हमने उनको हिदायत (मार्गदर्शन) में तरकक़ी दी थी। हमने उनके दिल उस वक्त मज़बूत कर दिए जब वे उठे और उन्होंने' एलान कर दिया कि हमारा रब तो बस वही है जो आसमानों और ज़मीन का रब है। उसे छोड़कर हम किसी दूसरे माबूद (पूज्य) को न पुकारेंगें। अगर हम ऐसा करेंगे तो बिल्कुल नाहक़ बात करेंगे।” (कुरआन, 8:8-4)
अल्लाह के नबी मुहम्मद (सल्ल०) का इतिहास भी बताता है कि ज़्यादातर जवानों और नौजवानों ने ही आप (सल्ल०) का साथ दिया। सबसे पहले सहाबा में हज़रत अली (रज़ि०) सबसे कम उम्र के थे, जिनकी उम्र 9 से लेकर ] साल तक बताई जाती है, और बड़ी उम्रवालों में हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) हैं जिनकी उम्र ज़्यादा से ज़्यादा 88 साल थी। दो-एक के अलावा ज़्यादातर सहाबा (रज़ि०) की उम्रें इससे कम ही थीं।
इस दौर में कोई भी इस्लामी तहरीक (आन्दोलन) नौजवानों की तरफ़ से कभी गृफ़लत नहीं बरत सकती। इसके लिए ज़रूरी है कि आप जिन नौजवानों में तहरीक का
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काम करना चाहते हैं, उनकी समस्याओं को समझें और उन्हें हल करने की कोशिश करें। आज के नौजवान जिन समस्याओं से दोचार हैं उनमें से कुछ का यहाँ जिक्र किया जा रहा है-
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आज का नौजवान एक तरह की जेहनी परेशानी में मुब्तला है। उसके सामने न कोई रास्ता है और न कोई मंज़िल। तरह-तरह के और परस्पर विरोधी नज़रियों ने उसे हर तरफ़ से घेर रखा है। वह उन नज़रियात के बीच हैरानी और परेशानी की दशा में खड़ा है और यह फ़ैसला नहीं कर पाता है कि इनमें से किसको अपनाए और किसका साथ दे? फ़िक्री लिहाज़ से उनमें से किसी भी नज़रिये में यह सलाहियत नहीं है कि उसके सारे माद्दी (भौतिक) और रूहानी (आत्मिक) मसलों को हल कर सके। एक पहलू से वे उसे मुत्मइन करने की कोशिश करते हैं तो दूसरे पहलू से उसे बेइत्मीनानी के हवाले कर देते हैं।“वह साफ़ देख रहा है कि उनमें से हर नज़रिया अमली लिहाज़ से उसके लिए बहुत नुक्सानदेह और घातक है। वह उसका बुरी तरह शोषण करता है और उसकी शक्तियों और सलाहियतों से गृलत फ़ायदा उठाता है। उनमें से किसी में भी उसे अपनी भलाई और कामयाबी नज़र नहीं आ रही है।
इस वक्त पूरी दुनिया अख़लाक़ी गिरावट का शिकार है। आज का नौजवान भी इसी गिरावट का शिकार है। अख़लाक़ी क़द्रें (नैतिक मूल्य) इनसान को कुछ उसूलों का पाबन्द बनाती हैं और उससे यह उम्मीद की जाती
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है कि वह उनकी ख़िलाफ़वर्ज़ी नहीं करेगा। दुनिया ने हमेशा इन अख़लाक़ी क़द्रों को दायमी क्र॒द्रो-क़ीमत रखनेवाली क़द्रें समझा है। इनकी ख़िलाफ़वर्ज़ी को वह जुर्म समझती रही है। लेकिन आज के इंसान के नज़दीक ये अख़लाक़ी क़दें स्थाई नहीं हैं। ये समाज की पैदावार हैं और समाज के हालात के साथ बदलती रहती हैं। इसलिए पुरानी क़द्रों पर हट करना और उनकी पाबन्दी को ज़रूरी समझना क़दामत-परस्ती (रूढ़ीवाद) और नासमझी की दलील है। इस सोच के साथ अख़लाक़ (नैतिकता) की स्थाई अहमियत ख़त्म हो जाती है और आदमी जिस अख़लाक़ी क़द्र को चाहे जाहिलियत के . दौर की यादगार कहकर पामाल कर सकता है।
इस वक्त दुनिया में ऐसे लोगों की पा नहीं है जो ज़बानी तौर पर अख़लाक़ी क़द्रों की मुस्तक़ित अहमियत के क़ायल हैं, लेकिन अमलन उनके उनकी इतनी अहमियत नहीं है कि उनके लिए कोई बड़ा नुक़सान बरदाश्त किया जाए या किसी हासिल होनेवाले फ़ायदे को छोड़ दिया जाए। सच्चाई और ईमानदारी एक आला अख़लाक़ी क़द्र है। इसकी अहमियत को वे स्वीकार करते हैं, लेकिन किसी भी छोटे से छोटे फ़ायदे के लिए वे झूठ बोल सकते हैं। यही हाल दूसरी अख़लाक़ी क़द्रों का भी है। इस अख़लाक़ी गिरावट की वजह से किसी शख्स को किसी पर भरोसा बाक़ी नहीं रहा है। हर शख्स दूसरे से डर महसूस करता है। आज का नौजवान भी इसी गैर-भरोसामन्दी के माहौल में जी
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रहा है। उसे न तो .किसी की सच्चाई, अमानतदारी, वादे, अहद और खुलूस पर- भरोसा है और न कोई दूसरा उस पर भरोसा करने के लिए तैयार है। वह समझता है कि उसे एक ऐसी दुनिया मिली है जो बे-उसूल और अख़लाक़ से महरूम (वंचित) है। वह यहाँ बे-उसूली अपनाकर ही कामयाब हो सकता है, वरना उसे क़दम-क़दम पर नुक़सान उठाना पड़ेगा।
. आज का एक बड़ा फ़ितना जिन्सी (यौन-सम्बन्धी) आवारगी 'है। इस ज़माने के फ़ल्सफ़ों ने इनसान को जानवर की सतह पर पहुँचा दिया है। वंह जानवर के नज़रिये से हर मसले को देखता है और उसे हल करना चाहता है। इसे वह फ़ितरी नज़रियां समझता है। इसका एक नतीजा जिन्सी अबाहियत-पसन्दी (यौन स्वछंदता) की शक्ल में सामने आया है। वह जानवरों की तरह पूरी जिनसी आज़ादी चाहता है और उसमें किसी क्रिस्म की रुकावट को पसन्द नहीं करता। उनके नज़दीक जिन्सी जज़बात को मज़हब (धर्म) और अख़लाक़ (नैतिकता) के नाम पर दबाना गैर-फ़ितरी (अप्राकूंतिक) * और नुक़्सानदेह है। इससे इनसान के ज़ेहन व मिजाज़ पर बुरा असर पड़ता है। इसके लिए उसने जिन्सी जज़बात को उभारनेवाला पूरा माहौल तैयार कर रखा है। रेडियो, टेलिवीज़न, अख़बार व पत्रिकाएँ, अश्लील_ इश्तेहार तथा गन्दी और अश्लील किताबें, यानी प्रसारण और प्रकाशन के तमाम साधन इस माहौल को बनाने और तरक्क़ी देने में लगे हुए हैं। इनसान के अन्दर
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जवानी के दौर में जिन्सी जज़बात का फ़ितरी तौर पर गुलबा रहता है। आज के माहौल ने इन जज़बात को और भड़का दिया है। आज के नौजवान पर जिन््सी जुनून सवार है और किसी संजीदा काम से उन्हें दिलचस्पी ज्हीं रह गई है। ज़रूरत इस बात की थी कि इन जज़बात को कंट्रोल किया जाता और सब्र व जब्त (सहनशीलता) की शिक्षा दी जाती और इसका आदी बनाया जाता लेकिन इसकी तरफ़ किसी का ध्यान नहीं है ।
. तालीम (शिक्षा) को आज की ख़राबियों का इलाज समझा जाता है और यह कहा जाता है कि तालीम जैसे-जैसे आम होगी ये ख़राबियाँ दूर होती चली जाएँगी। इसमें शक. नहीं कि तालीम सुधार का एक बेहतरीन ज़रीआ है। इससे इनसानः को बनाने और सँवारने में बड़ी मदद मिलती है, लेकिन आज के निज़ामे-तालीम (शिक्षा-व्यवस्था) से इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती। इसलिए कि सारी ख़राबियाँ बड़ी हद तक इसी शिक्षा-व्यवस्था 'की पैदा की हुई हैं। जिस शिक्षा ने पूरे समाज को! ज़हरीला बना रखा हो, उसे अमृत समझना बहुत बड़ी नादानी है। हम देख रहे हैं कि आज यही शिक्षा आम हो रही है और इसके हासिल करने वालों का औसत (अनुपात) भी बढ़ रहा है। अगर इससे मौजूदा बिगाड़ दूर हो सकता था तो जिस अनुपात से शिक्षा फैल रही है, उसी अनुपात से बिगाड़ में कभी आत्ती। लेकिन यह एक हक़ीक़त है कि इसमें
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कोई कमी नहीं आ रही है, बल्कि दिन-ब-दिन बढ़ोत्तरी ही हो रही है।
आज की शिक्षा-व्यवस्था इंसान के अन्दर ख़ालिस माद्दी (भौतिक) नज़रिया पैदा करती है और उसे खुदगरज़ और व्यक्तिगत हितों का बन्दा बनाती है। हर मामले में स्वार्थ उसके सामने होता है। वह इसी पहलू से उसे देखता है और इसी लिहाज़ से अमली क़दम उठाता है। कम से कम पश्चिमी देशों में आज जो शिक्षा-व्यवस्था है, वह क़ौम और देश और इनसानों की ख़ैरख़ाह तो दूर रही, इनसान को एक अच्छा शहरी बनाने में भी नाकाम है। इसी शिक्षा-व्यवस्था के तहत आज के विद्यार्थियों और नौजवानों की ज़ेहनी और फ़िक्री तरंबियत (77॥9) हो. रही है। वह उसी के ज़ेरे-असर परवान चढ़ रहे हैं। उसके नतीजे में हमें एक ऐसी नस्ल मिल रही है जो सिर्फ़ अपने लिए जी रही है और जिसके सामने कोई बड़ा मक़सद नहीं है।
ये हालात और समस्याएँ सिर्फ़ विद्यार्थियों (30५५७॥॥७)
और नौजवानों ही के साथ ख़ास नहीं हैं, बल्कि इनमें से अधिकतर हालात से आज का हर आदमी दोचार है। आप लोग विद्यार्थियों और नौजवानों में काम कर रहे हैं इसलिए इसी को सामने रखते हुए कुछ बातें बयान की जा रही हैं-
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आज की सारी ख़राबियों की बुनियाद यह है कि इनसान के सामने ज़िन्दगी का कोई बहुत बड़ा मक़सद नहीं है। ज़िन्दगी का मकसद जितना बुलन्द. और
पाकीज़ा होगा, उतनी ही नेकियाँ और ख़ूबियाँ इनसान
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के अन्दर उभरेंगी और वह कमियों और कमज़ोरियों पर क़ाबू पा सकेगा। अल्लाह का शुक्र है कि आप ज़िन्दगी का एक बहुत बड़ा और महान मक़सद रखते हैं। सबसे पहले इस मक़सद का खुद आपको ,गहरा शऊर होना चाहिए। आप को यह पूरा यक्नीन होना चाहिए कि वही एक मक़सद सही और हक़ है। उसके अलावा ज़िन्दगी के जितने भी मक़सद हैं या हो सकते हैं, वे सब के सब ग़लत और झूठे हैं। फिर आपकी पूरी ज़िन्दगी पर अपने मक़सद की गहरी छाप होनी चाहिए। आपकी एक-एक हरकत और अमल से ज़ाहिर होना चाहिए कि आप पर उसी मक़सद की हुक्मरानी है और आपके सारे आमाल (कर्म) उसी के ताबे (अधीन) हैं। आप उन्हीं कामों में दिलचस्पी लें जिनकी इजाज़त आपका मक़सद आपको दे और उन सभी कामों से दूर हो जाएँ जो इस मक़सद के ख़िलाफ़ हों। आपके फ़िक्र और अमल पर वह इस तरह छा जाए कि आपको देखनेवाला हर नौजवान यह महसूस करे कि आपकी ज़िन्दगी न तो बे-मक़सद है और न किसी छोटे और कम दर्जे के मक़सद को आपने अपना रखा है। एक बहुत बड़े मक़सद के लिए आपकी तालीम (शिक्षा) भी है और तरबियत भी। इसी को ग़ालिब और सरबुलन्द करने के लिए आप सोचते भी हैं और दौड़-धूप और कोशिशें भी करते हैं। आपको देखकर यह ख़याल कभी न उभरने पाए की दुनिया के बहुत-से नौजवानों की तरह आप भी बे-मक़सद ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं। याद रखिए!
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बा-मक़सद इनसान ही दूसरों पर असरअंदाज़ होता है। जो इनसान किसी मक़सद के लिए दौड़-धूप करता हो, जिसके वक्त, ताक़त और सलाहियत उसके लिए ख़ूर्च हो रहे हों, उससे दूसरा आदमी, चाहे इख़तिलाफ़ करे लेकिन उसे इज़्ज़त की निगाह से देखता है। अगर उसे यक़ीन हो जाए कि आप बा-मक़सद ही नहीं, सही मक़सद रखने वाले हैं और एक पाकीज़ा और बुलन्द मंज़िल आपके सामने है तो वह आपसे मुहब्बत करने लगेगा।
. आप जिस मकसद के अलमबरदार हैं उसका अपने
दोस्तों में परिचय कराइए और बराबर कराते रहिए। आपको जो भी वक्त मिले इसी काम में लगाइए। यहाँ तक कि आपसे मिलनेवाला हर आदमी यह समझ ले कि आप जिस बेहतर मक़सद के तहत ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं, उसी को दूसरों की ज़िन्दगी का भी मक़सद देखना चाहते हैं। आपके पास वक़्त, दौलत, इल्म और सलाहियत जो कुछ भी है, उसे इसी काम में लगाएँ फिर यह काम नतीजे से बेफ़िक्र होकर करें। नतीजों से बेपरवाह् होकर काम करना आसान नहीं है। इनसान जब अपनी मेहनत का फल आँखों के सामने नहीं देखता है तो उसे मायूसी होती है और वह हिम्मत हारकर बैठ जाता है। यह काम उसी वक्त हो सकता है जबकि आदमी उसे अपना फ़र्ज़ समझे, और यह समझे कि लोग चाहे मेरी बात क़बूल करें या न करें, हर हाल में मुझे अपना फ़र्ज़ पूरा करना है और लोगों के इनकार
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की वजह से मेरा फ़र्ज़ ख़त्म नहीं हो जाएगा। इस जज़बे के साथ आप काम करेंगे तो न आप की हिम्मत टूटेगी और न ही आप पर मायूसी छाएगी। वैसे यह बात भी ज़ेहन में रखिये कि इस्लाम की दावत में बड़ी जान है। यह इनसान की फ़ितरत से बिल्कुल क़रीब है। अगर फ़ितरत मर न गई हो तो इसका इनकार रूह पर सख्त गिराँ गुज़रता है। सही फ़ितरतवाला इनसान इसे आसानी से रद्द नहीं कर सकता।
बहुत से नौजवान इस काम के लिए वक्त न होने या उसकी कमी का बहाना करते हैं, हालाँकि यह कोई माक़ूल बहाना नहीं है। तेज़ से तेज़ ज़ेहन रखनेवाला और मेहनती से मेहनती विद्यार्थी (9७०७0) भी सैर- सपाटे और खेल-कूद के लिए वक्त निकालता है, दोस्तों के बीच बेतकल्लुफ़ी और हँसी-मज़ाक़ में भी वक्त लगाता है, थोड़ा-बहुत वक़्त गफ़लत में भी बरबाद हो जाता है। छुट्टियाँ आम तौर पर बे-मक़सद कामों में गुज़र जाती हैं। अगर आदमी अपने इन्हीं फ़ाज़िल वक़्तों को दीन की दावत के काम में लगा दे तो बहुत ही फ़ायदेमन्द नतीजे सामने आ सकते हैं। जिस आदमी के सामने जिन्दगी का कोई मक़सद हो और वह उसे दूसरों तक पहुँचाना भी चाहता हो तो अपने बहुत मसरूफ़ (व्यस्त) लम्हों में भी वह उसके लिए वक़्त निकाल लेगा। ज़िन्दगी का मक़सद इनसान के ज़ेहन और मिज़ाज को बदल देता है, उसकी दिलचस्पियों को
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बदंल देता है, उसके छोड़ने और अपनाने. के पैमाने और उसके बात करने के विषयों को बदल देता है। _ वही वक्त जिसमें लोग एक-दूसरे का मज़ाक़ उड़ाते हैं, फ़िल्मी गानों के सुनने और टेलिवीज़न के गन्दे प्रोग्रामों को देखने में लगाते हैं, हँसी-मज़ाक़ और ठटटों में गँवाते हैं, सैर-सपाटों और तफ़रीहों में बरबाद करते हैं, बा-मक़सद इनसान उसी को अपने मक़सद की तबलीग़ के लिए इस्तेमाल करता है और उन विष्यों पर बहस और गुफ़्तुमगू के लिए इस्तेमाल करता है जो उसके मक़सद से मेल खाते हों।
यहाँ एक बात ज़ेहन में रहे। वह यह कि दीन की तबलीगू और दावत का मतलब यह हरगिज़ नहीं है कि आप अपनी पढ़ाई से गृफ़लत बरतें। अगर आप विद्यार्थियों (5॥४७५७॥७७) के बीच काम करना चाहते हैं तो ज़रूरी है कि इल्म के मैदान में ऊँचा मक़ाम हासिल करें । एक विद्यार्थी उसी विद्यार्थी से सबसे ज़्यादा : मुतास्सिर होता है, बल्कि रौब खाता है, जो पढ़ने-लिखने में तेज़ और आगे हो। जो विद्यार्थी शिक्षा और इल्म के मामले में पीछे हो उसका दूसरे पर कोई असर नहीं पड़ता। ख़ासकर किसी संजीदा विद्यार्थी को अगर यह महसूस हो कि. एक ख़ास तहरीक (आन्दोलन) से जुड़े होने की वजह से आप शिक्षा के मैदान में पीछे रह गए हैं तो वह आपके क़रीब नहीं होगा और तहरीक के बारे में भी उसकी राय ख़राब होगी।
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5. २८०/+ ने शुरू ही से अक़ीदे और इबादत के बाद जिस चीज़ पर. ज़्यादा ज़ोर दिया है |वह अख़लाक़ है। आप कुरआन मजीद में देखेंगे कि इस्लाम जगह-जगह उन अख़लाक़ी ख़ूबियों को नुमायाँ करके दिखाता है जिन्हें
“ वह इनसान के अन्दर पैदा करना चाहता है। उसकी पूरी दावत (आह्वान) में अख़लाक़ियात इस तरह रची- बसी है कि उनके बिना इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। ख़ुद भी उन अख़लाक़ियात की पाबन्दी कीजिए और नौजवानों को भी उनका पाबन्द बनाइए। उनको लोगों की जान-माल और इज़्ज़त व आबरू का रक्षक ,और पासबान बनाकर खड़ा कीजिए। दुनिया की तहरीकें अपने गलत मक़सद के लिए गलत तरीक़े से विद्यार्थियों को इस्तेमाल करती हैं। वे उनको सीमाओं और पाबन्दियों से आज़ाद कर देती हैं, अपने विरोधियों के ख़िलाफ़ भड़काती हैं, उनसे हंगामे कराती हैं और बिगाड़ के काम लेती हैं। लेकिन आप इस तरह के “काम न उनसे ले सकते हैं और न आपको लेने चाहिएँ। आपको उनके ज़ेहन और सोच को बनाना होगा, उनको नेकी और परहेज़गारी के रास्ते पर लगाना होगा और उन्हें उस मक़ाम तक पहुँचाना होगा कि वे नेकी और परहेज़गारी के अलमबरदार बन जाएँ।
आख़री बात यह है कि आपका मक़सद दुनिया की कामयाबी नहीं, आखिरत की कामयाबी है। आपकी सारी
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. कोशिशें उसी के लिए हैं। इस माद्दापरस्त (भौतिकवादी) दौर में आख़िरत का कोई तसव्वुर (कल्पना) नहीं है। आज के नौजवानों में यही तसव्वुर आपको पैदा करना है। ज़ाहिर में यह बड़ा मुश्किल काम है, लेकिन इनसान के इरादे के सामने कोई मुश्किल, मुश्किल नहीं रहती। दुआ है कि अल्लाह तआला आपको इसमें कामयाबी दे। .,
आमीन!
0००७०
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